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वि षू मृधो॑ ज॒नुषा॒ दान॒मिन्व॒न्नह॒न्गवा॑ मघवन्त्संचका॒नः। अत्रा॑ दा॒सस्य॒ नमु॑चेः॒ शिरो॒ यदव॑र्तयो॒ मन॑वे गा॒तुमि॒च्छन् ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi ṣū mṛdho januṣā dānam invann ahan gavā maghavan saṁcakānaḥ | atrā dāsasya namuceḥ śiro yad avartayo manave gātum icchan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि। सु। मृधः॑। ज॒नुषा॑। दान॑म्। इन्व॑न्। अह॑न्। गवा॑। म॒घ॒ऽव॒न्। स॒म्ऽच॒का॒नः। अत्र॑। दा॒सस्य॑। नमु॑चेः। शिरः॑। यत्। अव॑र्तयः। मन॑वे। गा॒तुम्। इ॒च्छन् ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:30» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:27» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब वीर विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) धन और ऐश्वर्य से युक्त राजन् ! आप (जनुषा) जन्म से (दानम्) दान को (इन्वन्) प्राप्त होते हुए जैसे सूर्य्य (गवा) किरण से मेघ का (अहन्) नाश करता है, वैसे (मृधः) संग्रामों को जीतिये और (सञ्चकानः) उत्तम प्रकार कामना करते हुए जैसे (अत्रा) इस व्यवहार में सूर्य (नमुचेः) अपने स्वरूप को नहीं त्यागनेवाले (दासस्य) सेवक के सदृश वर्त्तमान मेघ के (शिरः) उत्तम अङ्ग का (वि) विशेष करके नाश करता है, वैसे आप (मनवे) विचारशील धार्मिक मनुष्य के लिये (यत्) जिस (गातुम्) भूमि वा वाणी की (इच्छन्) इच्छा करते हुए हो, उसके लिये शत्रु के शिर को (सु) उत्तम प्रकार (अवर्त्तयः) नाश करिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजजनो ! जो सूर्य मेघ को जीत कर जगत् को सुख देता है, वैसे दुष्ट शत्रुओं को जीत कर प्रजाओं को सुख दीजिये ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वीरविषयमाह ॥

अन्वय:

हे मघवन् राजंस्त्वं जनुषा दानमिन्वन् सन् यथा सूर्य्यो गवा मेघमंहस्तथा मृधो जहि। सञ्चकानः सन् यथात्रा सूर्य्यो नमुचेर्दासस्य मेघस्य शिरो व्यहँस्तथा त्वं मनवे यद्यां गातुमिच्छंस्तदर्थं शत्रुशिरः स्ववर्त्तयः ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) विशेषेण (सु) शोभने (मृधः) सङ्ग्रामान् (जनुषा) जन्मना (दानम्) (इन्वन्) प्राप्नुवन् (अहन्) हन्ति (गवा) किरणेन (मघवन्) धनैश्वर्य्याढ्य (सञ्चकानः) सम्यक् कामयमानः (अत्रा) अस्मिन् व्यवहारे। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (दासस्य) सेवकवद् वर्त्तमानस्य मेघस्य (नमुचेः) यः स्वं रूपं न मुञ्चति तस्य (शिरः) उत्तमाङ्गम् (यत्) (अवर्त्तयः) वर्त्तयेः (मनवे) मननशीलाय धार्मिकाय मनुष्याय (गातुम्) भूमिं वाणीं वा (इच्छन्) ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजानो ! यः सूर्यो मेघं जित्वा जगत्सुखयति तथा दुष्टाञ्छत्रून् विजित्य प्रजाः सुखयन्तु ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजजनांनो! जसा सूर्य मेघांना जिंकून जगाला सुख देतो, तसे तुम्ही दुष्ट शत्रूंना जिंकून प्रजेला सुख द्या. ॥ ७ ॥